बाल केंद्रित शिक्षा में बाल विकास के चरण
शारीरिक विकास की अवधारणा
वृद्धि सिर से पैर की ओर बढ़ती हैं।
वृद्धि निकट से दूर की होती है, पहले केंद्रीय भागों में बाद में दूसरे के भागों में जैसे मांस पेशियों का विकास।
वृद्धि सरल से जटिल की ओर होती है, शरीर की सामान्य वृद्धि पहले तथा विशिष्ट अंगों की बाद में होती है।
वृद्धि निरंतर तथा क्रमानुसार होती है।
विकास का एक निश्चित प्रतिरूप होता है। इसके 2 नियम है।
मस्तिक से नीचे की ओर का नियम अर्थात सिर से पैर की ओर।
निकट से दूर का नियम अर्थात पास के भाग से दूर के भागों की ओर।
सामान्य से विशिष्ट की ओर अंगों का विकास।
विकास की गति निरंतर होती है।
विकास में व्यक्तिगत भेद होता है।
प्रत्येक विकास अवस्था की अपनी विशेषताएं हैं जैसे
शैशवावस्था का प्रमुख गुण जिज्ञासा है
बाल्यावस्था का प्रमुख गुण सामाजिकता है
किशोरावस्था का प्रमुख गुण निम्न प्रकार है -
विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण
स्वतंत्रता प्राप्ति की इच्छा
वीर पूजा की भावना
इसीलिए किशोरावस्था को संकट का काल या तूफान का काल भी कहा जाता है। सबसे ज्यादा समस्या बालक को किशोरावस्था में ही होती है। वह अपनी सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षणिक परिस्थितियों से सामंजस्य नहीं बिठा पाता है।
विभिन्न अंगों के विकास की गति विभिन्न होती है।
प्रत्येक व्यक्ति विकास की सभी अवस्थाओं से क्रमशः गुजरता है।
प्रत्येक बालक की वृद्धि दर एवं विकास में विभिन्नता पाई जाती है। वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्न है -
बुद्धि या मानसिक योग्यता।
अंत स्रावी ग्रंथियां यह निम्न है - थायराइड,पैरा थायराइड, पिट्यूटरी ग्रंथि,पीनियल ग्रंथि , थायमस, एड्रिनल, यौन आदि।
लिंगभेद
निरीक्षण योग्य अंतर- रंगो के प्रति अंधापन लड़कों में अधिक होता है। लड़कियों की जीवन क्षमता अधिक होती है।
व्यवहार संबंधी अंतर - बालक गत्यात्मक क्रियाशीलता अधिक प्रदर्शित करते हैं। बालिकाएं सूक्ष्म क्रियाएं अधिक प्रदर्शित करती हैं चेहरे के क्षेत्र में। बालकों में दृष्टि की क्षमता अधिक होती है। बालिकाओं में सुनने संबंधित क्षमता अधिक होती है।
प्रजाति या वर्ण के आधार पर।
रोग तथा चोट के आधार पर।
शुद्ध वायु व सूर्य का प्रकाश या पर्यावरण के आधार पर।
पोषण के आधार पर।
वातावरण और वंशानुक्रम के आधार पर।
जन्म कर्म या जन्म का प्रभाव जिसे हम मेडिसिन इफेक्ट भी कहते हैं।
विकलांगता के आधार पर।
बालक की प्रकृति अर्थात सरल कठिन सुस्त से उत्साही बालक के आधार पर अंतर आदि।
बाल केंद्रित शिक्षा में बाल विकास
प्रधान तथा शारीरिक विकास तथा निम्न रूप से मानसिक व भावनात्मक विकास।
शिशु भाव विचार बोलना सीखता है।
सरल वाक्यों का प्रयोग करता है।
इसी काल में शिशु की मूल आदतों का उचित मार्ग निर्देशन हो सकता है।
इस आयु में माता पिता के संरक्षण में रहता है।
इस काल में प्रारंभिक प्रगति तीव्र बाद में मंद हो जाती है।
इसमें पूर्व अर्जित कौशल या ज्ञान परिपक्व तथा मजबूत होता है।
इसे दो भागों में बांटते हैं पहला 4 से 7 वर्ष दूसरा आठ से 11 या 12 वर्ष।
शैशवावस्था में प्राप्त शक्तियां मजबूत होती हैं।
जिज्ञासा का विकास होता है।
वस्तुओं के विषय में क्या कैसे कौन क्यों के प्रश्न मन में आते हैं।
इस अवस्था में अनुकरण बालक को आत्म शिक्षण की मुख्य विधि बन जाती है।
बाल्यावस्था के बीच में बालक प्राथमिक शाला जाने लगता है।
बालक में सामाजिक भावना का विकास होता है अतः इसे अनोखा काल भी कहते हैं।
यह विकास तीव्र गति का समय है इसमें शारीरिक परिवर्तन तेजी से होता है।
इसकी अवधि युवा अवस्था से प्रौढ़ अवस्था तक मानी जाती है।
इसे बाल्यावस्था व प्रोड़ता के बीच का संक्रमण काल कहते हैं।
इसे तूफान संकट या क्रांति का काल भी कहते हैं।
बालक माध्यमिक शाला में जाने लगता है।
शिक्षक को शिक्षण कार्य के लिए बालक की आवश्यकताओं का ज्ञान हो जाता है।
बालक की कक्षा में विभिन्न और सामान विविध व बेमेल शिक्षार्थी होते हैं।
समायोजन करने में समस्या होती है।
इस अवस्था में पढ़ने लिखने मैं नेत्रों पर जोर नहीं देना चाहिए।
इस अवस्था में शिक्षक को दृश्य सामग्री कम करके बालक की कल्पना का विकास करना चाहिए।
गणित विज्ञान भूगोल आदि में तर्क करना तथा स्वतंत्र रूप से निष्कर्ष प्राप्त करना इसी अवस्था में सिखाना चाहिए।किशोरावस्था कल्पना का प्रसव काल है।
इस अवस्था में काम भावना, श्रम साध्य खेलो, ललित कलाओं ,सहकारिता ,आत्म गौरव ,विनम्रता ,आत्मज्ञान, सदाचार ,धर्म में आस्था ,जीवन आदर्श जैसी भावनाओं व क्रियाओं का विकास होता है।
शिक्षार्थी विद्यालय से निकल जाता है।
इस अवस्था में शिक्षक को विद्यालय की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता।
कुछ कौशल व प्रवीणता का आना शारीरिक विकास की प्रवणता पर निर्भर करता है।
प्रकृति का ज्ञान हमारे सम्पूर्ण ज्ञान को समृद्ध बनाता है। अगर हम शिशु की प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर लें तो उसके बिकाश की अच्छी सम्भावनाये तलाश सकते है।
प्रकृति का नियम है की संसार में एक जैसे पाए जाने वाले व्यक्तियों में पूर्णता न हो कर कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य होती है। इन्ही भिन्नताओं व उनके विकाश के लिए किये जाने वाले प्रयासों का अध्यन हम बालमनोविज्ञान व शिशु के शैक्षणिक विकाश में करते है।
बाल मनोविज्ञान में इस भिन्नता को वैयक्तिक भिन्नता के नाम से जाना जाता है।
बाल विकास (या बच्चे का विकास), मनुष्य के जन्म से लेकर किशोरावस्था के अंत तक उनमें होने वाले जैविक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को कहते हैं, जब वे धीरे-धीरे निर्भरता से और अधिक स्वायत्तता की ओर बढ़ते हैं। चूंकि ये विकासात्मक परिवर्तन काफी हद तक जन्म से पहले के जीवन के दौरान आनुवंशिक कारकों और घटनाओं से प्रभावित हो सकते हैं इसलिए आनुवंशिकी और जन्म पूर्व विकास को आम तौर पर बच्चे के विकास के अध्ययन के हिस्से के रूप में शामिल किया जाता है। संबंधित शब्दों में जीवनकाल के दौरान होने वाले विकास को सन्दर्भित करने वाला विकासात्मक मनोविज्ञान और बच्चे की देखभाल से संबंधित चिकित्सा की शाखा बालरोगविज्ञान (पीडीऐट्रिक्स) शामिल हैं। विकासात्मक परिवर्तन, परिपक्वता के नाम से जानी जाने वाली आनुवंशिक रूप से नियंत्रित प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप या पर्यावरणीय कारकों और शिक्षण के परिणामस्वरूप हो सकता है लेकिन आम तौर पर ज्यादातर परिवर्तनों में दोनों के बीच का पारस्परिक संबंध शामिल होता है।
अगर विद्यार्थी इन पर अच्छी पकड़ बना ले तो हम १५ में से १० प्रश्न आसानी से सही-सही हल कर सकते है।
इस शीर्षक से सम्बंधित प्रश्न निम्नांकित बिंदुओं के अंतर्गत पूछे जाते है। इनका क्रमबद्ध अध्यन हम अपने आने वाले ब्लॉगों में करेंगे।
ये शीर्षक निम्न प्रकार से है-
शिशु विकाश की अवधारणा।
शिशु का व्यवहार।
शारीरिक वृद्धि व बुद्धि का विकाश।
शिशुओं की विभिन्न अवस्थाएँ।
संवेग व शिशु।
बाल अधिगम व विकाश।
बाल अधिगम अवस्था और बुद्धि विकाश।
शिशु का नैतिक विकाश।
शिशु का बौद्धिक विकाश।
शिशु पर सामाजिक और पारिवारिक प्रभाव।
बाल अधिगम क्षमता पर प्रभाव।
बाल अधिगम में पुरष्कार।
मनोवैज्ञानिकों के विचार व परिभाषाएं।
बाल विकास की अवधारणा को समझने से पहले हमें बाल मनोविज्ञान तथा बाल विकास में अंतर समझना होगा। बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है जबकि बाल विकास क्षमताओं के विकास की दशा का अध्ययन करता है. बाल मनोविज्ञान का अर्थ है कि बालकों के मन का अध्ययन गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक है।अब आते हैं अवधारणा पर अवधारणा एक ऐसा शब्द है जो हमारे ज्ञान को बालक या शिशु के बारे में एक आधार प्रदान करता है।
बाल विकास की अवधारणा बताती है कि शिशु में गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक होने वाले परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तनों से है जो निम्न है -
शारीरिक विकास की अवधारणा
ज्ञानात्मक व बोधात्मक विकास
भाषा विकास
संवेगात्मक विकास
सृजनात्मक विकास
नैतिक विकास
सामाजिक विकास
यह 7 बिंदु शिशु के ज्ञान ,शैक्षणिक व सामाजिक ज्ञान को मजबूत बनाते हैं और सफलता की ओर अग्रसर करते हैं
परिपक्वता एवं सीखना विकास को प्रभावित करते हैं। परिपक्वता द्वारा व्यक्ति के अंगों का विकास होता है।
परिपक्वता आयु के साथ आती जाती है। यह सीखने की प्रक्रिया पर आधारित है तथा मानव का विकास परिपक्वता तथा सीखना दोनों पर आधारित है। विकास का अर्थ परिवर्तन से है। परिवर्तन गुणात्मक तथा परिमाणात्मक होते हैं। परिवर्तन सदैव आगे की तरफ होते हैं। वृद्धि मात्रात्मक परिवर्तनों आकार एवं संरचना में परिवर्तन का उल्लेख करती है। वृद्धि परिमाणात्मक परिवर्तन से संबंधित है जैसे आकार एवं संरचना में बढ़ना।
वृद्धि के चार विभिन्न काल है - दो धीमी वृद्धि काल तथा दो तीव्र वृद्धि काल होते हैं। धीमी वृद्धि के समय समायोजन करना आसान होता है।
गर्भावस्था के दौरान तथा जन्म के पश्चात 6 माह तक वृद्धि की दर तीव्र या तेज होती है। दूसरा चक्र 8 से 11 वर्ष की अवस्था में प्रारंभ होता है तथा तरुण अवस्था आने तक चलता है। तीसरे चक्र में जो 11 वर्ष के पश्चात प्रारंभ होकर 15 या 16 वर्ष तक समाप्त होता है। चौथे चक्र वृद्धावस्था में प्राप्त की गई ऊंचाई या कद वही बनी रहती है किंतु वजन में परिवर्तन दिखाई देता है। समग्र रूप से देखा जाए तो विकास पहले शरीर के ऊपरी भाग में होता है इसके पश्चात शरीर के निचले भाग में होता है।
वृद्धि के नियम
शारीरिक विकास के सिद्धांत
वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक
शैशवावस्था ( जन्म से 3 साल) -
बाल्यावस्था (3 से 11 या 12 वर्ष)-
किशोरावस्था( 12 से 20 वर्ष)- तरुणा अवस्था( 18 से भी या 30 32 वर्ष)
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