पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त और लॉरेंस कोहलबर्ग का सिद्धांत

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त,लॉरेंस कोहलबर्ग का सिद्धांत

Piaget's Theory of Cognitive Development | Lawrence Kohlberg's Theory

Child Development And Pedagogy : पियाजे का सिद्धांत

Jean Piaget was a Swiss psychologist known for his work on child development. Piaget's theory of cognitive development and epistemological view are together called "genetic epistemology". Piaget placed great importance on the education of children.
पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त
(Theory of Cognitive Development)

Child Development And Pedagogy :मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। पियाजे का सिद्धान्त, विकासी अवस्था सिद्धान्त (Developmental Stage Theory) कहलाता है। पियाजे ने मनोवैज्ञानिकों का ध्यान विकास की अवस्थाओं तथा संज्ञान के महत्त्व की ओर आकर्षित किया है। पियाजे का सिद्धांत विकास की अवस्थाएं तथा संज्ञान के महत्व के बारे में बताता है। 

पियाजे ने अपने विचार को दो भागों - विकास की अवस्थाएं तथा संज्ञानात्मक अवस्था में बांटा है। पियाजे के सिद्धांत के कुछ प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं-

  1. निर्माण व खोज- इस सिद्धांत में बालक अप्रत्यक्ष व्यवहारों व विचारों का निर्माण करते हैं। पियाजे का सीखने का सिद्धांत बालक द्वारा क्रमानुसार खोज व निर्माण से है।
  2. कार्य क्रिया की खोज - इसका अर्थ मानसिक कार्य से है। मानसिक कार्य की मुख्य विशेषता उत्क्रमणसीलता है। यह विशेष प्रकार के मानसिक कार्य होते हैं। जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पहुंच जाता तब तक वह विभिन्न  कार्य क्रियाओं का अर्जन करता रहता है। इसके दो मुख्य तत्व हैं-

  • समावेशी करण- नए व्यवहारों  के विचारों को समन्वय करने से है। पियाजे का विचार का अर्थ बालक के प्रत्यक्ष आत्मक गत्यात्मक समन्वय से है।
  • संतुलन- नए व्यवहारों व विचारों के साथ संतुलन करने से है। बालकों में बौद्धिक वृद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे वह नई परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है। संतुलन में उत्पन्न  तनाव का हल निहित होता है। इस प्रकार का व्यवस्थापन संतुलन कहलाता है।

Child Development And Pedagogy : क्रमिक विकास की अवस्था

क्रमिक विकास की अवस्थाओं को हम दो रूपों में देखेंगे विकासात्मक अवस्था और संज्ञानात्मक अवस्था।
क्रमिक विकास की अवस्थाओं को चार भागों में बांटा गया है - 
  1. संवेदी पेशी अवस्था- इसकी आयु 0 से 2 वर्ष होती है। संवेदी पेशी के विकासात्मक विचार और उससे उपलब्ध उपलब्धियां निम्न है,जैसे- पूर्व शाब्दिक,गतियों की पुनरावृति, प्रयत्न, मूल व्यवहार का आरंभ, वस्तु स्थापित जीवात्मा रोपण। संवेदी प्रेरक के संज्ञानात्मक विकास  में शिशु संवेदी अनुभवों का शारीरिक क्रियाओं के साथ समन्वय करते हुए संसार का अन्वेषण करता है। संवेदी अवस्था एक बौद्धिक कार्य है।
  2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था- इसकी आयु 2 से 7 वर्ष होती है। बालक के संवेदी पेशी विकास अवस्था में निम्न तत्व है -अहम-केंद्रित,नकल करने की प्रवृत्ति, प्रत्यक्ष आत्मक तार्किक कल्पनात्मक खेल, अस्थिर और अनौपचारिक तार्किकता। इसके दो विचार हैं परिक्रमण आत्मक विचार और अंतर ज्ञात विचार। पूर्व संक्रियात्मक विकास में बालक के संज्ञानात्मक विकास प्रतीकात्मक विचार से विकसित होते हैं। वस्तु स्थायित्व उत्पन्न होता है, बच्चा वस्तु के विभिन्न भौतिक गुणों को समन्वित नहीं कर पाता है। पूर्व संक्रियात्मक अवस्था में सूचनाओं व अनुभवों का संग्रहण करना और बालक में आत्म केंद्रित का विकास होता है।
  3. ठोस संक्रियात्मक अवस्था- इसकी आयु 7 से 11 वर्ष होती है। इसका प्रमुख विचार आगमन आत्मक विचार है। इसके विकासात्मक विकास में- अहम केंद्रित व्याख्या व स्पष्टीकरण,संरक्षण व परिरक्षण,क्रमबद्ध निर्मित करना,रूपांतरण,वर्गीकरण,अति काल्पनिकता आदि समावेशित होते हैं।ठोस संक्रिया के संज्ञानात्मक विकास में बच्चा ठोस घटनाओं के संबंध में युक्तिसंगत तर्क कर सकता है और वस्तुओं को विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर सकता है। वस्तुओं की मानस प्रतिमाओं पर प्रति परिवर्तनीय मानसिक संक्रियाएं करने में सक्षम होता है। इस अवस्था में भौतिक व बौद्धिक स्थायित्व का विकास होता है।
  4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था- इसकी आयु 11 वर्ष या उससे अधिक है। इसका प्रमुख विचार  निगमनात्मक विचार है।इसके  विकासात्मक अवस्था में बालक तर्क का अनुप्रयोग करना,निष्कर्ष निकालना,शाब्दिक परिकल्पना,अधारात्मक चिंतन,दूसरों के साथ जुड़कर कार्य करना,समानुपात एकता एवं संयोजन कर सकता है और अनौपचारिक संबंध विकसित करता है। इसके संज्ञानात्मक विकास में बालक या किशोर तर्क का अनुप्रयोग अधिक अमूर्त रूप से कर सकते हैं। परिकल्पनात्मक चिंतन विकसित होते हैं। इसमें कल्पनाओं के माध्यम से समस्या समाधान द्वारा सीखना आता है।

Child Development And Pedagogy : लॉरेंस कोहलबर्ग का सिद्धांत
Kohlberg Theory of Moral Development


Child Development And Pedagogy :लारेंस कोहलबर्ग के सिद्धांत को नैतिक तार्किकता के विकास का सिद्धांत भी कहते हैं। यह सिद्धांत 10 से 16 आयु वर्षों तक के बच्चों पर प्रतिपादित किया गया है। इसमें बालक तीन स्तरों पर अपना विकास करता है। इसमें नैतिक व तार्किक योग्यता का विकास होता है। इस सिद्धांत के तीन स्तर निम्नलिखित हैं -
  1. रुढिगत  नैतिकता का स्तर - इसकी अवस्था 4 से 10 वर्ष मानी गई है। इसमें बालक द्वारा नैतिक तर्क अन्य व्यक्तियों के मानक के अनुरूप होता है। इसमें दो अवस्थाएं हैं - दंड एवं आज्ञाकारीता उन्मुखता - इसमें बालक भौतिक परिणामों को ध्यान में रखकर कार्य करता है। इसमें बालक दंड से बचने के लिए व्यक्तियों के सामने उनके प्रति सम्मान का दिखावा करता है। साधनात्मक  सापेक्षवादी उन्मुखता -  इसमें विचारों व व्यवहारों के परस्पर आदान-प्रदान का कार्य बालक करता है। अदला- बदली के भाव को मजबूती मिलती है। इसमें बालक कोई कार्य सहानुभूति या उदारता के लिए नहीं करता बल्कि अपने भौतिक उपयोग या जरूरत के बदले अन्य साधन या फल प्राप्त करने के लिए करते हैं।
  2. रूढ़िगत  नैतिकता का स्तर - इसकी अवस्था 10 से 13 वर्ष मानी गई है। इसमें  प्राक रूढ़िगत नैतिकता के  स्तर का प्रयोग   पुनःकिया जाता है। बाला को उचित तथा अनुचित का ज्ञान हो जाता है। इसमें बालक समाज के नियमों के अनुकूल व्यवहार करता है तथा इन्हीं मानकों के अनुसार सही गलत का फैसला करता है। इसमें अस्वीकृति की अपेक्षा स्वीकृति  पाने की लालसा तीव्र होती है।
  3. उत्तर रूढ़िगत  नैतिकता का स्तर -  इसे किशोरावस्था का समय माना जाता है। यह नैतिकता का उच्च स्तर  है। यह पूरी तरह  स्व केंद्रित एवं स्वानियंत्रित  व्यवहार करता है। इसकी दो अवस्थाएं होती हैं - सामाजिक अनुबंध उन्मुखता  - यह पूरी तरह से प्रजातांत्रिक मान्यताओं का व्यवहार व आदर करना सिखाती है। इसमें बालक सामाजिक परंपराओं और रीति-रिवाजों, रूढ़ियों,  विचारों आदि का पालन करता है। सार्वत्रिक नीतिपरक सिद्धांत उन्मुखता - इसमें बालक आंतरिक मानकों के अनुरूप व्यवहार करता है। यह बालक के व्यक्तिगत अर्जित किए गए नियमों के आधार पर होता है। इस अवस्था में नैतिक नियमों को प्रोत्साहित करने तथा आत्म निंदा से बचने का अभिप्रेरणा तीव्र होता है। यह उच्चतम सामाजिक स्तर की  उच्चतम अवस्था मानी जाती  है।

कोहलकोहलबर्ग के सिद्धांत की सीमाएं
  • इसमें वास्तविक व्यवहार की अवस्था की अपेक्षा तार्किकता पर अधिक ध्यान दिया गया है।
  • यह सिद्धांत एक सामान्य अन्वेषण के नियम का पालन करता है। इसमें वह प्रभाव अधिक होने के कारण बालक का  नैतिक व्यवहार कमजोर हो सकता है।
  • यह सिद्धांत बहुत सीमित है क्योंकि बालक विभिन्न अवस्थाओं में बहुत कुछ सीखते हैं और उनके कार्यों में विभिन्नता होती है। अतः यह  सीमित क्षेत्र का अध्ययन करता है।

Child Development And Pedagogy : कल्पना

Child Development And Pedagogy : बालक में कल्पना की प्रवृत्ति बहुत तेज होती है। अतः मनोविज्ञान में कल्पना शब्द का प्रयोग सब प्रकार की प्रतिमाओं के निर्माण को व्यक्त करने के लिए किया जा सकता है। जब मनुष्य भूतकाल,भविष्य काल के बारे में वर्तमान समय में जो कुछ सोचता है वही कल्पना है।  मैक डूगल ने कल्पना को दो भागों में बांटा है- पुनर उत्पादक कल्पना, उत्पादक कल्पना।
उत्पादक कल्पना को दो भागों में बांटा है- रचनात्मक और सृजनात्मक।
  1. पुनर उत्पादक कल्पना- इसमें स्मृति द्वारा गत अनुभवों की प्रतिमाओं को ज्यों का त्यों चेतना में लाने का प्रयत्न किया जाता है। जैसे बालक द्वारा पुरानी कहानी सुनाना।
  2. उत्पादक कल्पना- इस कल्पना में बालक गत अनुभव को एक नवीन क्रम में प्रस्तुत करता है।
ड्रेवर का वर्गीकरण
ड्रेवर ने कल्पना के कुछ प्रमुख प्रकार बताए हैं जो निम्न प्रकार है-
  • अदनात्मक कल्पना- इसको अनुकरणात्मक कल्पना भी कहते हैं। इसमें बालक ऐसी वस्तु को समझने का प्रयत्न करता है जिसे उसने प्रत्यक्ष रूप से कभी नहीं देखा। शिक्षा में इस प्रकार की कल्पना का उपयोग होता है। जब शिक्षक इतिहास,भूगोल आदि विषयों को पढ़ाता है और मानचित्र आदि दिखाकर समझाता है तब बालक की कल्पना ग्रहणात्मक होती है। यह निम्न कोटि की कल्पना होती है।
  • सृजनात्मक कल्पना- यह उच्च स्तर की कल्पना है। इसमें बालक पूर्व प्राप्त सामग्री को नवीन क्रम में व्यवस्थित करता है।
  • कार्य साधक कल्पना- इसके निम्न उदाहरण है- रेल,तार,टेलीफोन,वायुयान,आकाशवाणी,दूरदर्शन आदि। इस प्रकार की कल्पना विचारक,अन्वेषक या वैज्ञानिक की होती है।
  • सौंदर्य आत्मक कल्पना- यह कल्पना भावनाओं को संतुष्ट करती है। इसमें मस्तिष्क कल्पना के लिए स्वतंत्र रहता है। किसी प्रकार का वाह नियंत्रण नहीं होता।
  • कलात्मक कल्पना- इसके द्वारा कला संबंधी कार्यों का सृजन होता है। जैसे नाटक,कहानी,उपन्यास और चित्र आदि में ये कल्पना पाई जाती है। यह सत्यम शिवम सुंदरम के आदर्शों का निर्माण करती है। 
कल्पना और शिक्षा
कल्पना के विकास के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना जरूरी है -
  • ज्ञानेंद्रियों को प्रशिक्षित करना।
  • भाषा विकास पर ध्यान देना।
  • काल्पनिक खेल एवं क्रियाओं के लिए आवेदन।
  • कहानी सुनाना।
  • रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास करना। 
  • अभिनय करना।
  • शिक्षा में कल्पना की उपयोगिता
  • शिक्षा में कल्पना का महत्व व उपयोगिता निम्न प्रकार है -
  • ज्ञानार्जन में सहायक।
  • नवीन आविष्कारों में उपयोगी।
  • इच्छाओं की संतुष्टि का साधन।
  • समायोजन में सहायक।
  • सौंदर्य बोध का विकास।
  • भावी जीवन की तैयारी में सहायक।
  • स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगिता।
अन्य महत्वपूर्ण बातें-
  • वैज्ञानिक न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण शक्ति का सिद्धांत "सिद्धांत कल्पना' पर आधारित है।
  • शिक्षक "पुनुर्त्पादक कल्पना" के आधार पर शिक्षा प्रदान करता है।
  • कवि- कविता की रचना "सृजनात्मक कल्पना" के आधार पर करता है।

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