बाल विकास के सिद्धांत

बाल विकास के सिद्धांत

Child Development Principles

Child Development And Pedagogy : अभिवृद्धि एवं विकास यह दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयोग किए जाते हैं, किंतु मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इनमें कुछ ना कुछ अंतर जरूर होता है। अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग सामान्यतः शरीर और उसके अंगों के भार तथा आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है। इस वृद्धि को मापा या  तोला जा सकता है। अभिवृद्धि या विकास शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है।

शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ व परिपक्व बालक सीखने में रुचि लेते हैं जिससे वे शीघ्रता से नवीन बातों को सीख लेते हैं। इसके विपरीत कमजोर, बीमार व अपरिपक्व बालक सीखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं।

उपरोक्त बताई गई आधारभूत बातों के अनुसार हम बाल विकास के सिद्धांतों को निम्न प्रकार से समझ सकते हैं -

निरंतरता का सिद्धांत -  इस सिद्धांत के अनुसार विकास  एक  ना रुकने वाली प्रक्रिया है अर्थात गतिशील प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया मां के गर्भ से ही प्रारंभ हो जाती है और मृत्यु पर्यंत तक चलती रहती है। एक छोटे से आकार से अपना जीवन प्रारंभ कर के हम सब के व्यक्तित्व के सभी पक्षों -  शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि का संपूर्ण विकास किसी निरंतरता के गुण के कारण भली-भांति संपन्न होता रहता है।
वयक्तिक अंतर का सिद्धांत -  इस सिद्धांत के अनुसार बालकों का विकास और वृद्धि उनकी अपनी  व्यक्तिगत भिन्नता के अनुरूप होती है।वे अपनी प्राकृतिक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते हैं और इसी कारण से उनमें बहुत सारी  विभिन्नता देखने को मिलती हैं। कोई भी एक बालक वृद्धि और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समान नहीं होता है। विकास के इसी सिद्धांत के कारण कोई बालक अत्यंत मेधावी, कोई बालक सामान्य तथा कोई बालक पिछड़ा या मंद होता है।
विकास क्रम की एकरूपता -  यह सिद्धांत बताता है कि विकास की गति एक जैसी ना होने पर तथा पर्याप्त व्यक्तिगत विभिन्नता में अंतर पाए जाने पर भी विकास के क्रम में कुछ एकरूपता दिखाई पड़ती है। इस क्रम में एक ही जाति विशेष के सभी सदस्यों में कुछ एक जैसी विशेषताएं देखने को मिलती हैं।  उदाहरण के लिए हम समझ सकते हैं कि बालकों के गत्यात्मक और भाषाई विकास में भी एक निश्चित प्रतिमान और  क्रम के दर्शन किए जा सकते हैं।
वृद्धि एवं विकास की गति की दर एक सी नहीं रहती -  विकास की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती है लेकिन इस प्रक्रिया में विकास की गति हमेशा एक जैसी नहीं होती। शैशवावस्था के शुरू के वर्षों में यह गति कुछ तीव्र होती है, परंतु बाद के वर्षों में यह धीमी पड़ जाती है, पुनः किशोरावस्था में इसकी गति तेज हो जाती है परंतु यह अधिक समय तक नहीं बनी रहती।  अतः वृद्धि और विकास की गति में उतार चढ़ाव होते रहते हैं।
निश्चित तथा पूर्व कथनीय प्रतिरूप का सिद्धांत -  प्रत्येक प्रजाति चाहे वह पशु प्रजाति हो अथवा मानव प्रजाति के विकास का एक निश्चित प्रतिरुप या आकार होता है, जो उसके समस्त सदस्यों के लिए सामान्य होता है और प्रजाति के समस्त सदस्य उसी प्रतिमान का अनुसरण करते हैं।
वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत -  बालक का विकास वंशानुक्रम तथा वातावरण की परस्पर अंतर क्रिया का परिणाम होती है। वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों मिलकर बालक के विकास की दिशा व गति का नियंत्रण करते हैं।
चक्रकार प्रगति का सिद्धांत -  विकास प्रक्रिया के दौरान बीच-बीच में ऐसे अवसर आते हैं जब किसी क्षेत्र विशेष में विकास की पूर्व अर्जित स्थिति का समायोजन करने के लिए उस क्षेत्र की विकास प्रक्रिया लगभग विराम की स्थिति में आ जाती है। कुछ अवधि के उपरांत उस क्षेत्र में विकास की गति फिर बढ़ जाती है।
विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है -  उदाहरण के लिए अपने हाथों में कुछ चीज पकड़ने से बालक इधर से उधर यूं ही हाथ मारने या फैलाने की चेष्टा करता है । इसी तरह शुरू में एक नवजात शिशु के रोने और चिल्लाने में उसके सभी अंग प्रत्यंग भाग लेते हैं, परंतु बाद में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फल स्वरुप यह क्रियाएं उसकी आंखों और वाक तंत्र तक सीमित हो जाती हैं। भाषा विकास में भी बालक विशेष शब्दों से पहले सामान्य शब्द ही सीखता है।  अतः हम कह सकते हैं कि विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है।
परस्पर संबंध का सिद्धांत -  विकास के सभी आयाम जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक  आदि एक दूसरे से परस्पर संबंधित हैं। इनमें से किसी भी एक आयाम में होने वाला विकास अन्य सभी आयामों में होने वाले विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है। अतः विकास चाहे जिस रूप में भी हो वह आपस में परस्पर संबंधित होते हैं।
विकास की दिशा का सिद्धांत -  इस सिद्धांत के अनुसार विकास की प्रक्रिया पूर्व निश्चित दिशा में आगे बढ़ती है। विकास की यह दिशा व्यक्ति के वंशानुगत एवं वातावरण कारकों से प्रभावित होती है। इसके अनुसार बालक सबसे पहले अपने सिर और भुजाओं की गति पर नियंत्रण करना सीखता है और उसके बाद फिर टांगों की, इसके बाद वह बिना सहारे के खड़ा होना और चलना सीख लेता है।
विकास लंबवत सीधा ना होकर वर्तुल आकार होता है -  इस  सिद्धांत से तात्पर्य है कि विकास की गति सीधे चलकर विकास को प्राप्त नहीं करती बल्कि बढ़ते हुए और पीछे हट कर अपने विकास को परिपक्व और स्थाई बनाते हुए वर्तुल आकार आकृति की तरह आगे बढ़ता है। ऐसा होने के पीछे प्रमुख कारण यह है कि विकास द्वारा प्राप्त वृद्धि और विकास को स्थाई रूप दिया जा सके।
वृद्धि और विकास की क्रिया वंशानुक्रम और वातावरण का संयुक्त परिणाम है -  वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में वंशानुक्रम जहां आधार का कार्य करता है वहां वातावरण इस आधार पर बनाए जाने वाले व्यक्तित्व संबंधी भवन के लिए आवश्यक सामग्री एवं वातावरण जुटाने में सहयोग देता है। अतः बालक का विकास वंशानुक्रम और वातावरण का संयुक्त परिणाम है।
एकीकरण का सिद्धांत -  इसके अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना  सीखता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। इस तरह से बालक सामान्य से विशेष की ओर बढ़ते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं तथा  चेष्टा को एक साथ प्रयोग में लाना सीख लेता है।
विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है -  किसी बालक में उसकी वृद्धि और विकास की गति को ध्यान में रखकर उसके आगे बढ़ने की दिशा और स्वरूप के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है।
समन्वय का सिद्धांत -  विभिन्न रंगों के विकास में परस्पर समन्वय रहता है। बालक अपने संपूर्ण अंगों को तथा फिर उस अंग के विभिन्न भागों को चलाना सीखता है तत्पश्चात  इन समस्त भागों में समन्वय स्थापित करना सीख जाता है।समन्वय के अभाव में बालक का विकास होना असंभव है।
Child Development And Pedagogy : आज के लेख में हमने यह जाना कि बालक के विकास के सिद्धांत क्या है और वह बालक के विकास में किस प्रकार सहयोग देते हैं। शिक्षक पात्रता परीक्षा और उत्तर प्रदेश शिक्षक पात्रता परीक्षा इसके साथ ही प्राथमिक सहायक अध्यापक भर्ती परीक्षा के लिए यह आलेख बहुत ही उपयोगी है और समस्त प्रश्न जो कि बाल विकास से संबंधित होते हैं वह इन सिद्धांतों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। अगर अभ्यर्थी बाल विकास के इन सिद्धांतों पर और इनके अवधारणा  पर पकड़ बना लेते हैं तो उनके बाल मनोविज्ञान से संबंधित प्रश्न गलत होने की संभावना मात्र 5% तक ही रह जाती है। क्योंकि बाल विकास और मनोविज्ञान से संबंधित जितने भी चैप्टर हैं उन सभी की अवधारणा और समझ इन्हीं सिद्धांतों के आसपास घूमती रहती है या रची गई है । इस दृष्टि से भी यह आलेख ऐसे अभ्यर्थी जो केंद्र या राज्य सरकार के तहत आने वाले शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं उनके लिए अत्यंत उपयोगी साबित हो सकता है।

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