बाल विकास के सिद्धांत (Part 2)
बाल विकास के सिद्धांत अलग-अलग अवस्थाओं के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। जैसे गर्भावस्था से लेकर मध्य शैशवावस्था काल तक के विकास विशेष रूप से शारीरिक विकास कहलाते हैं और शैशवावस्था काल के मध्य से लेकर जीवन पर्यंत या किशोरावस्था तक के विकास मानसिक और शारीरिक दोनों रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं।
शारीरिक विकास से संबंधित प्रश्न पेपर 1 में कक्षा 1 से 5 के लिए और सामाजिक व व्यक्तित्व विकास से संबंधित प्रश्न पेपर 2 कक्षा 6 से 8 में अधिक पूछे जाते हैं। आइए पहले प्रारंभिक अवस्था के विकास के सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं।
विकास का एक निश्चित प्रतिरूप
विकास का एक निश्चित प्रतिरूप होता है अर्थात एक ही वंशानुक्रम के गुण धारण करने वाले बालकों में विकास की गति तथा सीमा एक सी होती है। विकास के इस निश्चित प्रतिरूप के दो नियम है जो इस प्रकार हैं-
मस्तिक से नीचे की ओर का नियम
मस्तिक से नीचे की ओर के नियम को सिर से पैरों की ओर विकास का नियम भी कहते हैं। इसमें विकास मस्तिक से शुरू होकर के पैरों तक जाकर खत्म होता है। इस विकास की प्रक्रिया में खासतौर से शारीरिक विकास देखने के लिए मिलता है।
निकट से दूर का नियम
निकट से दूर के नियम में बालक के अंदर पहले शारीरिक भागों के केंद्र में विकास और उसके बाद दूरस्थ भागों में विकास देखने के लिए मिलता है। उदाहरण के लिए पेट और सर में क्रियाशीलता जल्दी आती है जबकि अन्य भागों में विकास केंद्रीय भादो के विकास के बाद होता है।
सामान्य से विशिष्ट की ओर
सामान्य से विशिष्ट की ओर की इस प्रक्रिया में संपूर्ण शरीर का सामान्य विकास पहले होता है तथा विशिष्ट अंगो का बाद में होता है।
विकास निरंतर प्रक्रिया है
विकास की गति निरंतर होती है यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। किसी भी व्यक्ति के अंदर विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से शुरू होकर जीवन पर्यंत चलती रहती है। अतः इस प्रक्रिया को या विकास को विकास की निरंतर प्रक्रिया कहा जाता है।
विकास में व्यक्तिगत भेद होता है
विकास में वंशानुक्रम के आधार पर व्यक्तिगत भेद पाया जाता है। वंशानुक्रम के आधार पर प्राप्त सील गुणों के कारण कोई कोई बालक सारे के विकास और मानसिक विकास काफी तीव्र गति से करता है। इसके अलावा विकास के व्यक्तिगत भेद के अंदर लैंगिक विभिन्नता को भी माना जाता है। अर्थात बालक बालिका के विकास क्रम में भी व्यक्तिगत भेद पाया जाता है। जिसमें बालक के अपेक्षा बालिका शारीरिक और मानसिक रूप से तेज गति से विकास करती है।
विकास क्रम का सिद्धांत
विकास क्रम के सिद्धांत में गर्भावस्था से लेकर शैशवावस्था में विकास का एक निश्चित सिद्धांत होता है जिसको आप नीचे दिए गए चित्र के माध्यम से आसानी से समझ सकते हैं। इस रेखा चित्र में प्रत्येक अवस्था काल में एक बालक के विकास में क्या चीजें संपन्नता लाती हैं उन सभी का वर्णन किया गया है जो कि आपके परीक्षा की दृष्टि से काफी उपयोगी है।
विकास की गति में विभिन्नता पाई जाती है
विकास की गति कभी तीव्र होती है कभी मंद होती है। ऐसा बालक के अंदर उसके वंशानुक्रम के गुण और वातावरण ही प्रभाव के कारण हो सकता है। आगे के आने वाले चैप्टर अधिगम के पठार में हम इस सिद्धांत को और भी आसानी से समझ सकते हैं जिसमें अधिगम के पठार के अंतर्गत यह बताया गया है कि विकास की गति निरंतर परिवर्तित होती रहती है कभी वह एक समान नहीं रहती।
परिपक्वता और सीखने का सिद्धांत
विकास परिपक्वता और सीखने का परिणाम होता है। सीखने को अन्य शब्दों के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जैसे शिक्षण या अभ्यास का होना।
विकास की अंतः क्रिया का सिद्धांत
विकास के अंतः क्रिया सिद्धांत के अंतर्गत वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया शामिल होती है। अर्थात कोई बालक अपने वंशानुक्रम के प्रभाव के कारण शीघ्रता से सीख सकता है। इसके साथ ही वातावरण भी एक प्रभाव कारी कारक है विकास के सिद्धांत में जिसका प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर साफ देखा जा सकता है और इसके साथ ही अगर उसे सही पोषण सही वातावरण नहीं मिलता है तो इसका प्रभाव शारीरिक विकास पर भी पर लक्षित होता है।
बालक के विकास के सिद्धांतों को अच्छे तरीके से आप को पढ़ लेना चाहिए ताकि आप प्रश्नों का जवाब सही तरीके से दे सके लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि विकास के सिद्धांत आपको आसानी से समझ में आ जाए तो आपको विकास के प्रभावित करने वाले कारकों को भी समझना होगा इसका अध्ययन हम अपने नेक्स्ट टॉपिक में करेंगे।
good keep it up bro
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